मैदान मेेंं जीतते रहे , लेकिन मेज पर हारते रहे
उन्नीस सौ बासठ की लड़ाई में हार और चीनी धोखे के बाद भारतीय राजनेताओं की सोच में बदलाव आया। वो यह कि देश की सीमा को सुरक्षित रखने के लिए मजबूत और सुसज्जित सेना की जरूरत है। इसी बदली हुई सोच का नतीजा 1965 में देखने को मिला। पाकिस्तान ने भारत की कमजोरी को भांपकर हमला किया लेकिन उसे बुरी तरह मुंह की खाना पड़ी।
लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व में पूरा देश भारतीय सेना के साथ खड़ा हो गया। न केवल हमने अपनी सीमा की सुरक्षा की बल्कि इच्छोगिल नहर पार करके लाहौर पर दस्तक दे दी थी। हाजी पीर जैसे दुर्गम ऊंचाई को हमारी सेना ने अपनी जांबाजी से जीत लिया।

Hazi Pir Pass
लेकिन दुख की बात यही रही कि ताशकंद समझौते में लाल बहादुर शास्त्री पर इतना दवाब डाला गया कि सबके मना करने के बाद भी भारत को हाजी पीर दर्रे को पाकिस्तान को लौटाना पड़ा। अगर हाजी पीर दर्रा हमारे पास होता तो पाकिस्तान 1999 में कारगिल में अपनी नापाक हरकत नहीं कर पाता।
1971 के युद्ध में इंदिरा गांधी और फील्ड मार्शल मानेक शॉ की अगुआई में अकल्पनीय जीत हासिल की जिसमें सिर्फ 14 दिनों के अंतराल में हमने पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश में बदलकर नए देश का निर्माण कराया और अपनी सामरिक शक्ति का प्रदर्शन करते हुए वहां के लोगों को पाकिस्तान के अत्याचार से मुक्ति दिलाई।
यह बात अलग है कि बांग्लादेश बनने से पहले भी शरणार्थी के रूप में पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की भारत में घुसपैठ बनी रही और बांग्ला देश बनने के बाद घुसपैैठ की यह समस्या और भी विकट हो गई।
यह भी एक विडंबना है कि जिस पाकिस्तान के कब्जेे से भारत मेंं बांगला लोगों को मुक्ति दिलाई आज उसी देश की राजधानी ढाका में अपना बेस बनाकर आईएसआई उत्तर पूर्वी भारत में अशांति पैदा करने की कोशिश कर रहा है। पाकिस्तान को बांग्लादेश बनने के पहले जहां दो अलग-अलग मोर्चो पर लडऩा पड़ता था, वहीं आज चीन के साथ मिलकर पश्चिमी मोर्चे के साथ उत्तरी और उत्तर पूर्वी मोर्चे पर घेराबंदी की फिराक में है।
1971 की जीत के बाद भी हमने क्या हासिल किया? जो कुछ भी हमने जमीन हासिल की थी उसे शिमला समझौते में वापस लौटा दी। उसके 93 हजार कैैदी बनाए गए सैनिकों की सुुरक्षित पाक वापसी का इंतजाम कर दिया। जबकि पाकिस्तान ने 1971 के तकरीबन सौ युद्ध बंदी सैनिकों को आज तक नहीं लौटाया।
अगर भारत चाहता तो 1971 में ही पाक अधिकृत कश्मीर को वापस लेकर कश्मीर समस्या का स्थाई निदान कर सकता था। लेकिन विडंबना यही है कि हम युद्ध के मैदान में 1965 और 1971 में जीते लेकिन बातचीत के मंच पर हम हमेशा हारतेे रहे। हमें भारतीय राजनेताओं की सोच में बदलाव की जरूरत है।